वाजिद तबस्सुम शायरी : तबस्सुम जी एक प्रसिद्ध उर्दू के शायर थे उनका जन्म 16 मार्च 1935 में अमरावती में हुआ था वे एक गायक भी थे इसके अलावा उन्होंने करीब 27 बुक भी लिखी उन्होंने अपने जीवन में बहुत संघर्ष किया जिनकी संघर्ष के समय में लिखी गयी कुछ शायरी हम आपको बताते है इनकी देहांत 76 साल की उम्र में 7 दिसम्बर 2011 में मुम्बई में हुआ | वैसे इससे पहले आप हमारे कई प्रसिद्ध कविओ जैसे ग़ालिब, इमरान प्रतापगढ़ी, कुमार विश्वास और जॉन एलिया की रचनाये पढ़ चुके है तो अब आप जानिए हमारे वाजिद जी की कुछ दिल छूने वाली प्रसिद्ध कविताये इनका नाम आज भी हिंदी जगत में बड़े ही सम्मान के साथ लिया जाता है तो पढ़िए वाजिद जी की ही कुछ बेहतरीन दो लाइन के शेर जो की प्रेरणादायक सिद्ध होते है |
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Wazida Tabassum 2 Line Shayari
वाज़िद तबस्सुम 2 लाइन शायरी : अगर आप वाजिद तबस्सुम जी द्वारा दो लाइन की शायरी जानना चाहे तो नीचे दी हुई शयारीओ से जान सकते है :
कौन जाने कि इक तबस्सुम से
कितने मफ़्हूम-ए-ग़म निकलते हैं
कितनी पामाल उमंगों का है मदफ़न मत पूछ
वो तबस्सुम जो हक़ीक़त में फ़ुग़ाँ होता है
मार डाला मुस्कुरा कर नाज़ से
हाँ मिरी जाँ फिर उसी अंदाज़ से
मैं भी हैरान हूँ ऐ ‘दाग़’ कि ये बात है क्या
वादा वो करते हैं आता है तबस्सुम मुझ को
मिरे लबों का तबस्सुम तो सब ने देख लिया
जो दिल पे बीत रही है वो कोई क्या जाने
मिरी रूदाद-ए-ग़म वो सुन रहे हैं
तबस्सुम सा लबों पर आ रहा है
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Wazida Tabassum Sher
वाज़िद तबस्सुम शेर : अगर आप वाज़िद तबस्सुम जी के शेर के बारे में जानना चाहे तो हमारे इस आर्टिकल के माध्यम से आपको इन सबकी जानकारी मिल जाती है :
मिरी रूह की हक़ीक़त मिरे आँसुओं से पूछो
मिरा मज्लिसी तबस्सुम मिरा तर्जुमाँ नहीं है
न इशारा न किनाया न तबस्सुम न कलाम
पास बैठे हैं मगर दूर नज़र आते हैं
तबस्सुम की सज़ा कितनी कड़ी है
गुलों को खिल के मुरझाना पड़ा है
यूँ तो अश्कों से भी होता है अलम का इज़हार
हाए वो ग़म जो तबस्सुम से अयाँ होता है
ज़रा इक तबस्सुम की तकलीफ़ करना
कि गुलज़ार में फूल मुरझा रहे हैं
ज़ेर-ए-लब है अभी तबस्सुम-ए-दोस्त
मुंतशिर जल्वा-ए-बहार नहीं
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Wazida Tabassum Shayari In Hindi
वाज़िद तबस्सुम शायरी इन हिंदी : अगर आप वाज़िद तबस्सुम जी की उर्दू की शायरी हिंदी फॉण्ट में जानना चाहे तो हमारे माध्यम से जान सकते है और अगर आप चाहे तो अपने दोस्तों से शेयर भी क्र सकते है :
गुलों को खिल के मुरझाना पड़ा है
तबस्सुम की सज़ा कितनी बड़ी है
हर एक काँटे पे सुर्ख़ किरनें हर इक कली में चराग़ रौशन
ख़याल में मुस्कुराने वाले तिरा तबस्सुम कहाँ नहीं है
हर मुसीबत का दिया एक तबस्सुम से जवाब
इस तरह गर्दिश-ए-दौराँ को रुलाया मैं ने
इश्वा भी है शोख़ी भी तबस्सुम भी हया भी
ज़ालिम में और इक बात है इस सब के सिवा भी
कब बार-ए-तबस्सुम मिरे होंटों से उठेगा
ये बोझ भी लगता है उठाएगा कोई और
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