शायरी (Shayari)

नज़ीर अकबराबादी शायरी इन हिंदी – शेर व ग़ज़लें

Nazeer Akbarabadi Shayari In Hindi – Sher va Ghazale : नज़्म का पिता नज़ीर अकबराबादी जी का जन्म १८वी सदी में 1735 ईंसवी में दिल्ली में हुआ था वह एक बहुत ही प्रसिद्द उर्दू के कवी थे इसीलिए इन्हे ‘नज़्म का पिता’ भी कहा जाता था | इन्होने करीब 2 लाख रचनाये लिखी है इसके बाद इनकी मृत्यु 1830 में आगरा जिले में हुई | इसीलिए हम आपको नज़ीर अकबराबादी जी द्वारा लिखी गयी कुछ महत्वपूर्ण शेरो-शायरियो के बारे में बताते है जिन्हे पढ़ कर आप इनके बारे में काफी कुछ जान सकते है |

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नज़ीर अकबराबादी आदमीनामा

यूँ तो हम थे यूँही कुछ मिस्ल-ए-अनार-ओ-महताब
जब हमें आग दिखाए तो तमाशा निकला

सरसब्ज़ रखियो किश्त को ऐ चश्म तू मिरी
तेरी ही आब से है बस अब आबरू मिरी

शब को आ कर वो फिर गया हैहात
क्या इसी रात हम को सोना था

ये जवाहर ख़ाना-ए-दुनिया जो है बा-आब-ओ-ताब
अहल-ए-सूरत का है दरिया अहल-ए-मअ’नी का सराब

हस्तियाँ नीस्तियाँ याँ भी हैं ऐसी जैसे
वो कमर और वो दहाँ कुछ नहीं और सब कुछ है

लिख लिख के ‘नज़ीर’ इस ग़ज़ल-ए-ताज़ा को ख़ूबाँ
रख लेंगे किताबों में ये रंग-ए-पर-ए-ताएर

मय भी है मीना भी है साग़र भी है साक़ी नहीं
दिल में आता है लगा दें आग मय-ख़ाने को हम

सुनो मैं ख़ूँ को अपने साथ ले आया हूँ और बाक़ी
चले आते हैं उठते बैठते लख़्त-ए-जिगर पीछे

शहर में लगता नहीं सहरा से घबराता है दिल
अब कहाँ ले जा के बैठें ऐसे दीवाने को हम

शहर-ए-दिल आबाद था जब तक वो शहर-आरा रहा
जब वो शहर-आरा गया फिर शहर-ए-दिल में क्या रहा

वामाँदगान-ए-राह तो मंज़िल पे जा पड़े
अब तू भी ऐ ‘नज़ीर’ यहाँ से क़दम तराश

यूँ तो हम कुछ न थे पर मिस्ल-ए-अनार-ओ-महताब
जब हमें आग लगाई तो तमाशा निकला

हम हाल तो कह सकते हैं अपना प कहें क्या
जब वो इधर आते हैं तो तन्हा नहीं आते

हम वो दरख़्त हैं कि जिसे दम-ब-दम अजल
अर्रह इधर दिखाती है ऊधर तबर क़ज़ा

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Nazeer Akbarabadi Shayari In Urdu

हर इक मकाँ में गुज़रगाह-ए-ख़्वाब है लेकिन
अगर नहीं तो नहीं इश्क़ के जनाब में ख़्वाब

हुस्न के नाज़ उठाने के सिवा
हम से और हुस्न-ए-अमल क्या होगा

वो आप से रूठा नहीं मनने का ‘नज़ीर’ आह
क्या देखे है चल पाँव पड़ और उस को मना ला

वो मय-कदे में हलावत है रिंद-ए-मय-कश को
जो ख़ानक़ाह में है पारसा को ऐश-ओ-तरब

रंज-ए-दिल यूँ गया रुख़ उस का देख
जैसे उठ जाए आईने से ज़ंग

सब किताबों के खुल गए मअ’नी
जब से देखी ‘नज़ीर’ दिल की किताब

सर-चश्मा-ए-बक़ा से हरगिज़ न आब लाओ
हज़रत ख़िज़र कहीं से जा कर शराब लाओ

यार के आगे पढ़ा ये रेख़्ता जा कर ‘नज़ीर’
सुन के बोला वाह-वाह अच्छा कहा अच्छा कहा

मरता है जो महबूब की ठोकर पे ‘नज़ीर’ आह
फिर उस को कभी और कोई लत नहीं लगती

मज़मून-ए-सर्द-मेहरी-ए-जानाँ रक़म करूँ
गर हाथ आए काग़ज़-ए-कश्मीर का वरक़

मुंतज़िर उस के दिला ता-ब-कुजा बैठना
शाम हुई अब चलो सुब्ह फिर आ बैठना

पुकारा क़ासिद-ए-अश्क आज फ़ौज-ए-ग़म के हाथों से
हुआ ताराज पहले शहर-ए-जाँ दिल का नगर पीछे

है दसहरे में भी यूँ गर फ़रहत-ओ-ज़ीनत ‘नज़ीर’
पर दिवाली भी अजब पाकीज़ा-तर त्यौहार है

मिरी इस चश्म-ए-तर से अब्र-ए-बाराँ को है क्या निस्बत
कि वो दरिया का पानी और ये ख़ून-ए-दिल है बरसाती

नज़ीर अकबराबादी आदमीनामा

Nazeer Akbarabadi Banjara Nama Urdu | Nazeer Akbarabadi Great Ghazal

न गुल अपना न ख़ार अपना न ज़ालिम बाग़बाँ अपना
बनाया आह किस गुलशन में हम ने आशियाँ अपना

न इतना ज़ुल्म कर ऐ चाँदनी बहर-ए-ख़ुदा छुप जा
तुझे देखे से याद आता है मुझ को माहताब अपना

मैं हूँ पतंग-ए-काग़ज़ी डोर है उस के हाथ में
चाहा इधर घटा दिया चाहा उधर बढ़ा दिया

दूर से आए थे साक़ी सुन के मय-ख़ाने को हम
बस तरसते ही चले अफ़्सोस पैमाने को हम

दूर-अज़-तरीक़ मुझ को समझियो न ज़ाहिदा
गर तू ख़ुदा-परस्त है मैं बुत-परस्त हूँ

‘नज़ीर’ अब इस नदामत से कहूँ क्या
फ़-आहा सुम्मा-आहा सुम्मा-आहा

‘नज़ीर’ तेरी इशारतों से ये बातें ग़ैरों की सुन रहा है
वगर्ना किस में थी ताब-ओ-ताक़त जो उस से आ कर कलाम करता

मय पी के जो गिरता है तो लेते हैं उसे थाम
नज़रों से गिरा जो उसे फिर किस ने सँभाला

मैं दस्त-ओ-गरेबाँ हूँ दम-ए-बाज़-पुसीं से
हमदम उसे लाता है तो ला जल्द कहीं से

मुँह ज़र्द ओ आह-ए-सर्द ओ लब-ए-ख़ुश्क ओ चश्म-ए-तर
सच्ची जो दिल-लगी है तो क्या क्या गवाह है

दिल की बेताबी नहीं ठहरने देती है मुझे
दिन कहीं रात कहीं सुब्ह कहीं शाम कहीं

दोस्तो क्या क्या दिवाली में नशात-ओ-ऐश है
सब मुहय्या है जो इस हंगाम के शायाँ है शय

देखे न मुझे क्यूँकर अज़-चश्म-ए-हिक़ारत-ऊ
वो सर्व-ए-जवाँ यारो मन-फ़ाख़्ता-ए-पीरम

देखेंगे हम इक निगाह उस को
कुछ होश अगर बजा रहेगा

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Nazeer Akbarabadi Ki Nazm

दीवानगी मेरी के तहय्युर में शब-ओ-रोज़
है हल्क़ा-ए-ज़ंजीर से ज़िंदाँ हमा-तन-चश्म

देख ले इस चमन-ए-दहर को दिल भर के ‘नज़ीर’
फिर तिरा काहे को इस बाग़ में आना होगा

देख उसे रंग-ए-बहार ओ सर्व ओ गुल और जूएबार
इक उड़ा इक गिर गया इक जल गया इक बह गया

बंदे के क़लम हाथ में होता तो ग़ज़ब था
सद शुक्र कि है कातिब-ए-तक़दीर कोई और

बे-ज़री फ़ाक़ा-कशी मुफ़्लिसी बे-सामानी
हम फ़क़ीरों के भी हाँ कुछ नहीं और सब कुछ है

भुला दीं हम ने किताबें कि उस परी-रू के
किताबी चेहरे के आगे किताब है क्या चीज़

ज़माने के हाथों से चारा नहीं है
ज़माना हमारा तुम्हारा नहीं है

बाग़ में लगता नहीं सहरा से घबराता है दिल
अब कहाँ ले जा के बैठें ऐसे दीवाने को हम

बदन गुल चेहरा गुल रुख़्सार गुल लब गुल दहन है गुल
सरापा अब तो वो रश्क-ए-चमन है ढेर फूलों का

थे हम तो ख़ुद-पसंद बहुत लेकिन इश्क़ में
अब है वही पसंद जो हो यार को पसंद

तोड़े हैं बहुत शीशा-ए-दिल जिस ने ‘नज़ीर’ आह
फिर चर्ख़ वही गुम्बद-ए-मीनाई है कम-बख़्त

तुम्हारे हिज्र में आँखें हमारी मुद्दत से
नहीं ये जानतीं दुनिया में ख़्वाब है क्या चीज़

तू है वो गुल ऐ जाँ कि तिरे बाग़ में है शौक़
जिब्रील को बुलबुल की तरह नारा-ज़नी का

तू जो कल आने को कहता है ‘नज़ीर’
तुझ को मालूम है कल क्या होगा

तूफ़ाँ उठा रहा है मिरे दिल में सैल-ए-अश्क
वो दिन ख़ुदा न लाए जो मैं आब-दीदा हूँ

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