Mirza Muhammad Rafi Sauda Shayari : मिर्ज़ा मुहम्मद रफ़ी सौदा उर्दू जगत के वह कवि है जिनका नाम आज के समय में विश्व-विख्यात है इनके जन्म के सम्बन्ध में बहुत मतभेद है लेकिन विद्वानों के अनुसार इनका जन्म ११२५ हिजरी (यानि १७१३-१७१४ ईसवी) बताया गया है | वह दिल्ली के रहने वाले थे इसीलिए वह दिल्ली के मशहूर शायरों में से एक शायर थे | इनके द्वारा कई प्रकार की ग़ज़लें व शेरो शायरियां लिखी गयी है जिनमे से हम आपको कुछ शेरो शायरियां बताते है जिन्हे पढ़ कर आप इनके बारे में काफी कुछ जान सकते है |
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मोहम्मद रफ़ी सौदा की ग़ज़लें
‘सौदा’ जहाँ में आ के कोई कुछ न ले गया
जाता हूँ एक मैं दिल-ए-पुर-आरज़ू लिए
‘सौदा’ तू इस ग़ज़ल को ग़ज़ल-दर-ग़ज़ल ही कह
होना है तुझ को ‘मीर’ से उस्ताद की तरफ़
‘सौदा’ जो बे-ख़बर है वही याँ करे है ऐश
मुश्किल बहुत है उन को जो रखते हैं आगही
‘सौदा’ हुए जब आशिक़ क्या पास आबरू का
सुनता है ऐ दिवाने जब दिल दिया तो फिर क्या
‘सौदा’ तिरी फ़रियाद से आँखों में कटी रात
आई है सहर होने को तुक तू कहीं मर भी
‘सौदा’ ख़ुदा के वास्ते कर क़िस्सा मुख़्तसर
अपनी तो नींद उड़ गई तेरे फ़साने में
हर संग में शरार है तेरे ज़ुहूर का
मूसा नहीं जो सैर करूँ कोह तूर का
‘सौदा’ जो तिरा हाल है इतना तो नहीं वो
क्या जानिए तू ने उसे किस आन में देखा
हर आन आ मुझी को सताते हो नासेहो
समझा के तुम उसे भी तो यक-बार कुछ कहो
ये तो नहीं कहता हूँ कि सच-मुच करो इंसाफ़
झूटी भी तसल्ली हो तो जीता ही रहूँ मैं
फ़िराक़-ए-ख़ुल्द से गंदुम है सीना-चाक अब तक
इलाही हो न वतन से कोई ग़रीब जुदा
मैं ने तुम को दिल दिया और तुम ने मुझे रुस्वा किया
मैं ने तुम से क्या किया और तुम ने मुझ से क्या किया
नौबत-ए-क़ैस हो चुकी आख़िर
अब तो ‘सौदा’ का बाजता है नाँव
है मुद्दतों से ख़ाना-ए-ज़ंजीर बे-सदा
मालूम ही नहीं कि दिवाने किधर गए
साक़ी गई बहार रही दिल में ये हवस
तू मिन्नतों से जाम दे और मैं कहूँ कि बस
मै-कशाँ रूह हमारी भी कभी शाद करो
टूटे गर बज़्म में शीशा तो हमें याद करो
फ़िक्र-ए-मआश इश्क़-ए-बुताँ याद-ए-रफ़्तगाँ
इस ज़िंदगी में अब कोई क्या क्या किया करे
यारो वो शर्म से जो न बोला तो क्या हुआ
आँखों में सौ तरह की हिकायात हो गई
समझे थे हम जो दोस्त तुझे ऐ मियाँ ग़लत
तेरा नहीं है जुर्म हमारा गुमाँ ग़लत
नसीम है तिरे कूचे में और सबा भी है
हमारी ख़ाक से देखो तो कुछ रहा भी है
‘सौदा’ की जो बालीं पे गया शोर-ए-क़यामत
ख़ुद्दाम-ए-अदब बोले अभी आँख लगी है
मत पूछ ये कि रात कटी क्यूँके तुझ बग़ैर
इस गुफ़्तुगू से फ़ाएदा प्यारे गुज़र गई
मौज-ए-नसीम आज है आलूदा गर्द से
दिल ख़ाक हो गया है किसी बे-क़रार का
साक़ी हमारी तौबा तुझ पर है क्यूँ गवारा
मिन्नत नहीं तो ज़ालिम तर्ग़ीब या इशारा
नहीं है घर कोई ऐसा जहाँ उस को न देखा हो
कनहय्या से नहीं कुछ कम सनम मेरा वो हरजाई
वे सूरतें इलाही किस मुल्क बस्तियाँ हैं
अब देखने को जिन के आँखें तरसतियाँ हैं
दिखाऊँगा तुझे ज़ाहिद उस आफ़त-ए-दीं को
ख़लल दिमाग़ में तेरे है पारसाई का
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मोहम्मद रफ़ी शेरो शायरी
दिल के टुकड़ों को बग़ल-गीर लिए फिरता हूँ
कुछ इलाज इस का भी ऐ शीशा-गिराँ है कि नहीं
दिल मत टपक नज़र से कि पाया न जाएगा
जूँ अश्क फिर ज़मीं से उठाया न जाएगा
न जिया तेरी चश्म का मारा
न तिरी ज़ुल्फ़ का बँधा छूटा
ये रंजिश में हम को है बे-इख़्तियारी
तुझे तेरी खा कर क़सम देखते हैं
बे-सबाती ज़माने की नाचार
करनी मुझ को बयान पड़ती है
जिस रोज़ किसी और पे बेदाद करोगे
ये याद रहे हम को बहुत याद करोगे
न कर ‘सौदा’ तू शिकवा हम से दिल की बे-क़रारी का
मोहब्बत किस को देती है मियाँ आराम दुनिया में
तुम कान धर सुनो न सुनो उस के हर्फ़ को
‘सौदा’ को हैगी अपनी ही गुफ़्तार से ग़रज़
कौन किसी का ग़म खाता है
कहने को ग़म-ख़्वार है दुनिया
काम आई कोहकन की मशक़्क़त न इश्क़ में
पत्थर से जू-ए-शीर के लाने ने क्या किया
जब यार ने उठा कर ज़ुल्फ़ों के बाल बाँधे
तब मैं ने अपने दिल में लाखों ख़याल बाँधे
किस मुँह से फिर तू आप को कहता है इश्क़-बाज़
ऐ रू-सियाह तुझ से तो ये भी न हो सका
कैफ़िय्यत-ए-चश्म उस की मुझे याद है ‘सौदा’
साग़र को मिरे हाथ से लीजो कि चला मैं
ज़ाहिद सभी हैं नेमत-ए-हक़ जो है अक्ल-ओ-शर्ब
लेकिन अजब मज़ा है शराब ओ कबाब का
ज़ालिम न मैं कहा था कि इस ख़ूँ से दरगुज़र
‘सौदा’ का क़त्ल है ये छुपाया न जाएगा
कहते थे हम न देख सकें रोज़-ए-हिज्र को
पर जो ख़ुदा दिखाए सो नाचार देखना
कहियो सबा सलाम हमारा बहार से
हम तो चमन को छोड़ के सू-ए-क़फ़स चले
बदला तिरे सितम का कोई तुझ से क्या करे
अपना ही तू फ़रेफ़्ता होवे ख़ुदा करे
इस कश्मकश से दाम के क्या काम था हमें
ऐ उल्फ़त-ए-चमन तिरा ख़ाना-ख़राब हो
इश्क़ से तो नहीं हूँ मैं वाक़िफ़
दिल को शोला सा कुछ लिपटता है
गिला लिखूँ मैं अगर तेरी बेवफ़ाई का
लहू में ग़र्क़ सफ़ीना हो आश्नाई का
किसे ताक़त है शरह-ए-शौक़ उस मज्लिस में करने की
उठा देने के डर से साँस वाँ लेते हैं रह रह के
गुल फेंके है औरों की तरफ़ बल्कि समर भी
ऐ ख़ाना-बर-अंदाज़-ए-चमन कुछ तो इधर भी
क्या करूँगा ले के वाइज़ हाथ से हूरों के जाम
हूँ मैं साग़र-कश किसी के साग़र-ए-मख़मूर का
क्या ज़िद है मिरे साथ ख़ुदा जाने वगरना
काफ़ी है तसल्ली को मिरी एक नज़र भी
तिरा ख़त आने से दिल को मेरे आराम क्या होगा
ख़ुदा जाने कि इस आग़ाज़ का अंजाम क्या होगा
ग़रज़ कुफ़्र से कुछ न दीं से है मतलब
तमाशा-ए-दैर-ओ-हरम देखते हैं
बादशाहत दो जहाँ की भी जो होवे मुझ को
तेरे कूचे की गदाई से न खो दे मुझ को
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