Maulana Altaf Hussain Hali Ki Shayari – Sher Va Ghazal : मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली जी की उर्दू जगत के महान कवियों में से एक कवि है इनका जन्म 1837 में पानीपत में हुआ था यह एक विश्व प्रसिद्ध लेखक तथा कवि थे | इनकी मृत्य 76 साल की उम्र में 30 सितम्बर 1914 को हुई | इनके द्वारा अनेक प्रकार की रचनाये की गयी थी जिनमे से कुछ विश्व प्रसिद्ध शायरियां भी लिखी गयी है अगर आप उन शायरियो को जानना चाहते है तो इसके लिए आप नीचे बताई गयी जानकारी को पढ़ कर इसके बारे में जानकारी पा सकते है |
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Shayari of Altaf Hussain Hali
सदा एक ही रुख़ नहीं नाव चलती
चलो तुम उधर को हवा हो जिधर की
जानवर आदमी फ़रिश्ता ख़ुदा
आदमी की हैं सैकड़ों क़िस्में
धूम थी अपनी पारसाई की
की भी और किस से आश्नाई की
चोर है दिल में कुछ न कुछ यारो
नींद फिर रात भर न आई आज
दरिया को अपनी मौज की तुग़्यानियों से काम
कश्ती किसी की पार हो या दरमियाँ रहे
दिखाना पड़ेगा मुझे ज़ख़्म-ए-दिल
अगर तीर उस का ख़ता हो गया
दिल से ख़याल-ए-दोस्त भुलाया न जाएगा
सीने में दाग़ है कि मिटाया न जाएगा
कहते हैं जिस को जन्नत वो इक झलक है तेरी
सब वाइज़ों की बाक़ी रंगीं-बयानियाँ हैं
कुछ हँसी खेल सँभलना ग़म-ए-हिज्राँ में नहीं
चाक-ए-दिल में है मिरे जो कि गरेबाँ में नहीं
होती नहीं क़ुबूल दुआ तर्क-ए-इश्क़ की
दिल चाहता न हो तो ज़बाँ में असर कहाँ
माँ बाप और उस्ताद सब हैं ख़ुदा की रहमत
है रोक-टोक उन की हक़ में तुम्हारे ने’मत
आगे बढ़े न क़िस्सा-ए-इश्क़-ए-बुताँ से हम
सब कुछ कहा मगर न खुले राज़-दाँ से हम
आ रही है चाह-ए-यूसुफ़ से सदा
दोस्त याँ थोड़े हैं और भाई बहुत
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अल्ताफ़ हुसैन हाली की ग़ज़लें
बहुत जी ख़ुश हुआ ‘हाली’ से मिल कर
अभी कुछ लोग बाक़ी हैं जहाँ में
बे-क़रारी थी सब उम्मीद-ए-मुलाक़ात के साथ
अब वो अगली सी दराज़ी शब-ए-हिज्राँ में नहीं
मुँह कहाँ तक छुपाओगे हम से
तुम में आदत है ख़ुद-नुमाई की
फ़राग़त से दुनिया में हर दम न बैठो
अगर चाहते हो फ़राग़त ज़ियादा
फ़रिश्ते से बढ़ कर है इंसान बनना
मगर इस में लगती है मेहनत ज़ियादा
गुल-ओ-गुलचीं का गिला बुलबुल-ए-ख़ुश-लहजा न कर
तू गिरफ़्तार हुई अपनी सदा के बाइ’स
सख़्त मुश्किल है शेवा-ए-तस्लीम
हम भी आख़िर को जी चुराने लगे
उस के जाते ही ये क्या हो गई घर की सूरत
न वो दीवार की सूरत है न दर की सूरत
इक दर्द हो बस आठ पहर दिल में कि जिस को
तख़फ़ीफ़ दवा से हो न तस्कीन दुआ से
इश्क़ सुनते थे जिसे हम वो यही है शायद
ख़ुद-बख़ुद दिल में है इक शख़्स समाया जाता
जानवर आदमी फ़रिश्ता ख़ुदा
आदमी की हैं सैकड़ों क़िस्में
कहते हैं जिस को जन्नत वो इक झलक है तेरी
सब वाइज़ों की बाक़ी रंगीं-बयानियाँ हैं
कुछ हँसी खेल सँभलना ग़म-ए-हिज्राँ में नहीं
चाक-ए-दिल में है मिरे जो कि गरेबाँ में नहीं
‘हाली’ सुख़न में ‘शेफ़्ता’ से मुस्तफ़ीद है
‘ग़ालिब’ का मो’तक़िद है मुक़ल्लिद है ‘मीर’ का
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Altaf Hussain Hali Ki Nazmain In Urdu
शहद-ओ-शकर से शीरीं उर्दू ज़बाँ हमारी
होती है जिस के बोले मीठी ज़बाँ हमारी
क्यूँ बढ़ाते हो इख़्तिलात बहुत
हम को ताक़त नहीं जुदाई की
क़ैस हो कोहकन हो या ‘हाली’
आशिक़ी कुछ किसी की ज़ात नहीं
यारान-ए-तेज़-गाम ने महमिल को जा लिया
हम महव-ए-नाला-ए-जरस-ए-कारवां रहे
यही है इबादत यही दीन ओ ईमाँ
कि काम आए दुनिया में इंसाँ के इंसाँ
हम रोज़-ए-विदाअ’ उन से हँस हँस के हुए रुख़्सत
रोना था बहुत हम को रोते भी तो क्या होता
हर सम्त गर्द-ए-नाक़ा-ए-लैला बुलंद है
पहुँचे जो हौसला हो किसी शहसवार का
तुम ऐसे कौन ख़ुदा हो कि उम्र भर तुम से
उमीद भी न रखूँ ना-उमीद भी न रहूँ
क़लक़ और दिल में सिवा हो गया
दिलासा तुम्हारा बला हो गया
ताज़ीर-ए-जुर्म-ए-इश्क़ है बे-सर्फ़ा मोहतसिब
बढ़ता है और ज़ौक़-ए-गुनह याँ सज़ा के ब’अद
तज़्किरा देहली-ए-मरहूम का ऐ दोस्त न छेड़
न सुना जाएगा हम से ये फ़साना हरगिज़
तुम को हज़ार शर्म सही मुझ को लाख ज़ब्त
उल्फ़त वो राज़ है कि छुपाया न जाएगा
मुझे कल के वादे पे करते हैं रुख़्सत
कोई वादा पूरा हुआ चाहता है
राह के तालिब हैं पर बे-राह पड़ते हैं क़दम
देखिए क्या ढूँढते हैं और क्या पाते हैं हम
रोना है ये कि आप भी हँसते थे वर्ना याँ
तअ’न-ए-रक़ीब दिल पे कुछ ऐसा गिराँ न था
वो उम्मीद क्या जिस की हो इंतिहा
वो व’अदा नहीं जो वफ़ा हो गया
है जुस्तुजू कि ख़ूब से है ख़ूब-तर कहाँ
अब ठहरती है देखिए जा कर नज़र कहाँ
हम जिस पे मर रहे हैं वो है बात ही कुछ और
आलम में तुझ से लाख सही तू मगर कहाँ
हम ने अव्वल से पढ़ी है ये किताब आख़िर तक
हम से पूछे कोई होती है मोहब्बत कैसी
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