Khwaja Mir Dard Shayari : ख्वाजा मीर दर्द जी का जन्म सन 1721 में हुआ था और यह एक उर्दू के प्रसिद्ध शायर रह चुके है आज भी उर्दू जगत में इनके नाम भी शायरी और गज़ले इनके व्यक्तित्व को दर्शाती है | ख्वाजा जी का व्यक्तित्व बहुत ही आकर्षक रहा है लेकिन शेरो-शायरियो व ग़ज़लों का ये बेताज बादशाह 7 जनवरी 1785 को दुनिया से हमेशा के लिए अलविदा कह गया | अगर आप ख्वाजा जी की दिल छूने वाली शायरी जानना चाहते है तो इसके लिए आप हमारे द्वारा बताई गयी इस पोस्ट में जान सकते है |
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शेर ओ शायरी हिंदी में
जग में आ कर इधर उधर देखा
तू ही आया नज़र जिधर देखा
शम्अ के मानिंद हम इस बज़्म में
चश्म-ए-तर आए थे दामन-तर चले
जी की जी ही में रही बात न होने पाई
हैफ़ कि उस से मुलाक़ात न होने पाई
काश उस के रू-ब-रू न करें मुझ को हश्र में
कितने मिरे सवाल हैं जिन का नहीं जवाब
आँखें भी हाए नज़अ में अपनी बदल गईं
सच है कि बेकसी में कोई आश्ना नहीं
कभू रोना कभू हँसना कभू हैरान हो जाना
मोहब्बत क्या भले-चंगे को दीवाना बनाती है
मुझे ये डर है दिल-ए-ज़िंदा तू न मर जाए
कि ज़िंदगानी इबारत है तेरे जीने से
कहते न थे हम ‘दर्द’ मियाँ छोड़ो ये बातें
पाई न सज़ा और वफ़ा कीजिए उस से
क़त्ल से मेरे वो जो बाज़ रहा
किसी बद-ख़्वाह ने कहा होगा
आगे ही बिन कहे तू कहे है नहीं नहीं
तुझ से अभी तो हम ने वे बातें कही नहीं
न रह जावे कहीं तू ज़ाहिदा महरूम रहमत से
गुनहगारों में समझा करियो अपनी बे-गुनाही को
अर्ज़-ओ-समा कहाँ तिरी वुसअत को पा सके
मेरा ही दिल है वो कि जहाँ तू समा सके
रात मज्लिस में तिरे हुस्न के शोले के हुज़ूर
शम्अ के मुँह पे जो देखा तो कहीं नूर न था
हम भी जरस की तरह तो इस क़ाफ़िले के साथ
नाले जो कुछ बिसात में थे सो सुना चले
कमर ख़मीदा नहीं बे-सबब ज़ईफ़ी में
ज़मीन ढूँडते हैं वो मज़ार के क़ाबिल
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Khwaja Meer Dard Ghazals Tashreeh
क़त्ल-ए-आशिक़ किसी माशूक़ से कुछ दूर न था
पर तिरे अहद से आगे तो ये दस्तूर न था
अज़िय्यत मुसीबत मलामत बलाएँ
तिरे इश्क़ में हम ने क्या क्या न देखा
खुल नहीं सकती हैं अब आँखें मिरी
जी में ये किस का तसव्वुर आ गया
सल्तनत पर नहीं है कुछ मौक़ूफ़
जिस के हाथ आए जाम वो जम है
नहीं शिकवा मुझे कुछ बेवफ़ाई का तिरी हरगिज़
गिला तब हो अगर तू ने किसी से भी निभाई हो
जान से हो गए बदन ख़ाली
जिस तरफ़ तू ने आँख भर देखा
एक ईमान है बिसात अपनी
न इबादत न कुछ रियाज़त है
गली से तिरी दिल को ले तो चला हूँ
मैं पहुँचूँगा जब तक ये आता रहेगा
क़ासिद नहीं ये काम तिरा अपनी राह ले
उस का पयाम दिल के सिवा कौन ला सके
रौंदे है नक़्श-ए-पा की तरह ख़ल्क़ याँ मुझे
ऐ उम्र-ए-रफ़्ता छोड़ गई तू कहाँ मुझे
तमन्ना तिरी है अगर है तमन्ना
तिरी आरज़ू है अगर आरज़ू है
तुझी को जो याँ जल्वा-फ़रमा न देखा
बराबर है दुनिया को देखा न देखा
टुक ख़बर ले कि हर घड़ी हम को
अब जुदाई बहुत सताती है
ग़ाफ़िल ख़ुदा की याद पे मत भूल ज़ीनहार
अपने तईं भुला दे अगर तू भुला सके
सैर-ए-बहार-ए-बाग़ से हम को मुआ’फ़ कीजिए
उस के ख़याल-ए-ज़ुल्फ़ से ‘दर्द’ किसे फ़राग़ है
तर-दामनी पे शैख़ हमारी न जाइयो
दामन निचोड़ दें तो फ़रिश्ते वज़ू करें
Khwaja Mir Dard Books
हमें तो बाग़ तुझ बिन ख़ाना-ए-मातम नज़र आया
इधर गुल फाड़ते थे जैब रोती थी उधर शबनम
उन लबों ने न की मसीहाई
हम ने सौ सौ तरह से मर देखा
ने गुल को है सबात न हम को है ए’तिबार
किस बात पर चमन हवस-ए-रंग-ओ-बू करें
है ग़लत गर गुमान में कुछ है
तुझ सिवा भी जहान में कुछ है
तोहमत-ए-चंद अपने ज़िम्मे धर चले
जिस लिए आए थे हम कर चले
वाए नादानी कि वक़्त-ए-मर्ग ये साबित हुआ
ख़्वाब था जो कुछ कि देखा जो सुना अफ़्साना था
ज़ालिम जफ़ा जो चाहे सो कर मुझ पे तू वले
पछतावे फिर तू आप ही ऐसा न कर कहीं
सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल ज़िंदगानी फिर कहाँ
ज़िंदगी गर कुछ रही तो ये जवानी फिर कहाँ
साक़िया! याँ लग रहा है चल-चलाव
जब तलक बस चल सके साग़र चले
साक़ी मिरे भी दिल की तरफ़ टुक निगाह कर
लब-तिश्ना तेरी बज़्म में ये जाम रह गया
मत जा तर-ओ-ताज़गी पे उस की
आलम तो ख़याल का चमन है
ज़िक्र मेरा ही वो करता था सरीहन लेकिन
मैं ने पूछा तो कहा ख़ैर ये मज़कूर न था
हो गया मेहमाँ-सरा-ए-कसरत-ए-मौहूम आह
वो दिल-ए-ख़ाली कि तेरा ख़ास ख़ल्वत-ख़ाना था
हर-चंद तुझे सब्र नहीं दर्द व-लेकिन
इतना भी न मिलियो कि वो बदनाम बहुत हो
हाल मुझ ग़म-ज़दा का जिस जिस ने
जब सुना होगा रो दिया होगा
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Tabsara On Meer Dard In Urdu
यक-ब-यक नाम ले उठा मेरा
जी में क्या उस के आ गया होगा
ज़िंदगी है या कोई तूफ़ान है!
हम तो इस जीने के हाथों मर चले
या-रब ये क्या तिलिस्म है इदराक-ओ-फ़हम याँ
दौड़े हज़ार आप से बाहर न जा सके
बाग़-ए-जहाँ के गुल हैं या ख़ार हैं तो हम हैं
गर यार हैं तो हम हैं अग़्यार हैं तो हम हैं
वहदत में तेरी हर्फ़ दुई का न आ सके
आईना क्या मजाल तुझे मुँह दिखा सके
मैं जाता हूँ दिल को तिरे पास छोड़े
मिरी याद तुझ को दिलाता रहेगा
‘दर्द’ के मिलने से ऐ यार बुरा क्यूँ माना
उस को कुछ और सिवा दीद के मंज़ूर न था
बावजूदे कि पर-ओ-बाल न थे आदम के
वहाँ पहुँचा कि फ़रिश्ते का भी मक़्दूर न था
‘दर्द’ कुछ मालूम है ये लोग सब
किस तरफ़ से आए थे कीधर चले
दुश्मनी ने सुना न होवेगा
जो हमें दोस्ती ने दिखलाया
दिल भी तेरे ही ढंग सीखा है
आन में कुछ है आन में कुछ है
दर्द-ए-दिल के वास्ते पैदा किया इंसान को
वर्ना ताअत के लिए कुछ कम न थे कर्र-ओ-बयाँ
दर्द तू जो करे है जी का ज़ियाँ
फ़ाएदा उस ज़ियान में कुछ है
दिल भी ऐ ‘दर्द’ क़तरा-ए-ख़ूँ था
आँसुओं में कहीं गिरा होगा
बंद अहकाम-ए-अक़्ल में रहना
ये भी इक नौअ’ की हिमाक़त है
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