शायरी (Shayari)

दाग़ देहलवी की शायरी

Daagh Dehlvi Ki Shayari : दाग़ देहलवी का जन्म दिल्ली में 25 मई 1831 को हुआ था और इन्होने उर्दू में कई शायर व शेर किये इन्हे एक उर्दू के विश्व विख्यात कवी के रूप में ख्याति प्राप्त है | इनकी मृत्यु 17 फरवरी 1905 में हैदराबाद में हुई थी | हम आपको दाग़ देहलवी जी की कुछ बेहतरीन बेहतरीन शायरियो के बारे में बताते है जो की आपके लिए बहुत ज्यादा प्रसिद्ध है अगर आप इन शायरियो को पढ़ते है तो आप इनके बारे में काफी कुछ जानकारी पा सकते है |

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Daagh Dehlvi Poetry Facebook

क्या इज़्तिराब-ए-शौक़ ने मुझ को ख़जिल किया
वो पूछते हैं कहिए इरादे कहाँ के हैं

ज़माने के क्या क्या सितम देखते हैं
हमीं जानते हैं जो हम देखते हैं

क्या क्या फ़रेब दिल को दिए इज़्तिराब में
उन की तरफ़ से आप लिखे ख़त जवाब में

क़त्ल की सुन के ख़बर ईद मनाई मैं ने
आज जिस से मुझे मिलना था गले मिल आया

क्यूँ वस्ल की शब हाथ लगाने नहीं देते
माशूक़ हो या कोई अमानत हो किसी की

कोई नाम-ओ-निशाँ पूछे तो ऐ क़ासिद बता देना
तख़ल्लुस ‘दाग़’ है वो आशिक़ों के दिल में रहते हैं

क्या पूछते हो कौन है ये किस की है शोहरत
क्या तुम ने कभी ‘दाग़’ का दीवाँ नहीं देखा

क्या लुत्फ़-ए-दोस्ती कि नहीं लुत्फ़-ए-दुश्मनी
दुश्मन को भी जो देखिए पूरा कहाँ है अब

क्या क्या फ़रेब दिल को दिए इज़्तिराब में
उन की तरफ़ से आप लिखे ख़त जवाब में

कोई छींटा पड़े तो ‘दाग़’ कलकत्ते चले जाएँ
अज़ीमाबाद में हम मुंतज़िर सावन के बैठे हैं

ख़ातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया
झूटी क़सम से आप का ईमान तो गया

की तर्क-ए-मय तो माइल-ए-पिंदार हो गया
मैं तौबा कर के और गुनहगार हो गया

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Daag Dehlvi 2 Line Shayari In Hindi

ख़ूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं
साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं

ख़ुदा की क़सम उस ने खाई जो आज
क़सम है ख़ुदा की मज़ा आ गया

ख़बर सुन कर मिरे मरने की वो बोले रक़ीबों से
ख़ुदा बख़्शे बहुत सी ख़ूबियाँ थीं मरने वाले में

ख़ार-ए-हसरत बयान से निकला
दिल का काँटा ज़बान से निकला

कल तक तो आश्ना थे मगर आज ग़ैर हो
दो दिन में ये मिज़ाज है आगे की ख़ैर हो

कहने देती नहीं कुछ मुँह से मोहब्बत मेरी
लब पे रह जाती है आ आ के शिकायत मेरी

कहीं है ईद की शादी कहीं मातम है मक़्तल में
कोई क़ातिल से मिलता है कोई बिस्मिल से मिलता है

ग़ज़ब किया तिरे वअ’दे पे ए’तिबार किया
तमाम रात क़यामत का इंतिज़ार किया

ग़श खा के ‘दाग़’ यार के क़दमों पे गिर पड़ा
बेहोश ने भी काम किया होशियार का

इस वहम में वो ‘दाग़’ को मरने नहीं देते
माशूक़ न मिल जाए कहीं ज़ेर-ए-ज़मीं और

उधर शर्म हाइल इधर ख़ौफ़ माने
न वो देखते हैं न हम देखते हैं

ग़म्ज़ा भी हो सफ़्फ़ाक निगाहें भी हों ख़ूँ-रेज़
तलवार के बाँधे से तो क़ातिल नहीं होता

दाग देहलवी की शायरी

दाग देहलवी के हिंदी शेर

छेड़ माशूक़ से कीजे तो ज़रा थम थम कर
रोज़ के नामा ओ पैग़ाम बुरे होते हैं

चाक हो पर्दा-ए-वहशत मुझे मंज़ूर नहीं
वर्ना ये हाथ गिरेबान से कुछ दूर नहीं

उड़ गई यूँ वफ़ा ज़माने से
कभी गोया किसी में थी ही नहीं

चाह की चितवन में आँख उस की शरमाई हुई
ताड़ ली मज्लिस में सब ने सख़्त रुस्वाई हुई

उज़्र उन की ज़बान से निकला
तीर गोया कमान से निकला

उन की फ़रमाइश नई दिन रात है
और थोड़ी सी मिरी औक़ात है

उज़्र आने में भी है और बुलाते भी नहीं
बाइस-ए-तर्क-ए-मुलाक़ात बताते भी नहीं

उर्दू है जिस का नाम हमीं जानते हैं ‘दाग़’
हिन्दोस्ताँ में धूम हमारी ज़बाँ की है

इस नहीं का कोई इलाज नहीं
रोज़ कहते हैं आप आज नहीं

इस लिए वस्ल से इंकार है हम जान गए
ये न समझे कोई क्या जल्द कहा मान गए

अर्ज़-ए-अहवाल को गिला समझे
क्या कहा मैं ने आप क्या समझे

इलाही क्यूँ नहीं उठती क़यामत माजरा क्या है
हमारे सामने पहलू में वो दुश्मन के बैठे हैं

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दाग देहलवी ग़ज़ल्स

अयादत को मिरी आ कर वो ये ताकीद करते हैं
तुझे हम मार डालेंगे नहीं तो जल्द अच्छा हो

और होंगे तिरी महफ़िल से उभरने वाले
हज़रत-ए-‘दाग़’ जहाँ बैठ गए बैठ गए

इक अदा मस्ताना सर से पाँव तक छाई हुई
उफ़ तिरी काफ़िर जवानी जोश पर आई हुई

ईद है क़त्ल मिरा अहल-ए-तमाशा के लिए
सब गले मिलने लगे जब कि वो जल्लाद आया

इफ़्शा-ए-राज़-ए-इश्क़ में गो ज़िल्लतें हुईं
लेकिन उसे जता तो दिया जान तो गया

अयादत को मिरी आ कर वो ये ताकीद करते हैं
तुझे हम मार डालेंगे नहीं तो जल्द अच्छा हो

अब तो बीमार-ए-मोहब्बत तेरे
क़ाबिल-ए-ग़ौर हुए जाते हैं

अभी आई भी नहीं कूचा-ए-दिलबर से सदा
खिल गई आज मिरे दिल की कली आप ही आप

ऐ दाग़ अपनी वज़्अ’ हमेशा यही रही
कोई खिंचा खिंचे कोई हम से मिला मिले

आती है बात बात मुझे बार बार याद
कहता हूँ दौड़ दौड़ के क़ासिद से राह में

आप पछताएँ नहीं जौर से तौबा न करें
आप के सर की क़सम ‘दाग़’ का हाल अच्छा है

आओ मिल जाओ कि ये वक़्त न पाओगे कभी
मैं भी हम-राह ज़माने के बदल जाऊँगा

आशिक़ी से मिलेगा ऐ ज़ाहिद
बंदगी से ख़ुदा नहीं मिलता

आप का ए’तिबार कौन करे
रोज़ का इंतिज़ार कौन करे

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