शायरी (Shayari)

अमीर मीनाई की शायरी

Amir Minai Ki Shayari : अमीर मीनाई जी का पूरा नाम मुंशी अमीर अहमद “मीनाई” था तथा इनका जन्म सन 1828 में उत्तर प्रदेश जिले के लखनऊ जिले में हुआ था तथा इनकी मृत्यु 13 अक्टूबर 1900 में हुआ था | मीनाई जी ने 22 किताबें लिखीं जिसमें 4 दीवान लिखी थी जिसकी वजह से उन्होंने उर्दू जगत में अपना नाम किया और जिसकी वजह से वह आज भी हमारे बीच विश्विख्यात है और उनके द्वारा कही गयी कुछ लाजवाब दिल छूने वाली प्रेरणादायक शायरियां आज भी हमारे लिए बहुत उपयोगी होती है | जिन्हे पढ़ कर हम चाहे तो अपने दोस्तों के साथ भी शेयर कर सकते है |

यह भी देखे : अख़्तर शीरानी की शायरी

Amir Minai Ghazal

ये कहूँगा ये कहूँगा ये अभी कहते हो
सामने उन के भी जब हज़रत-ए-दिल याद रहे

ये भी इक बात है अदावत की
रोज़ा रक्खा जो हम ने दावत की

वस्ल का दिन और इतना मुख़्तसर
दिन गिने जाते थे इस दिन के लिए

हँस के फ़रमाते हैं वो देख के हालत मेरी
क्यूँ तुम आसान समझते थे मोहब्बत मेरी

सीधी निगाह में तिरी हैं तीर के ख़्वास
तिरछी ज़रा हुई तो हैं शमशीर के ख़्वास

वस्ल में ख़ाली हुई ग़ैर से महफ़िल तो क्या
शर्म भी जाए तो मैं जानूँ कि तन्हाई हुई

सौ शेर एक जलसे में कहते थे हम ‘अमीर’
जब तक न शेर कहने का हम को शुऊर था

सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता
निकलता आ रहा है आफ़्ताब आहिस्ता आहिस्ता

यार पहलू में है तन्हाई है कह दो निकले
आज क्यूँ दिल में छुपी बैठी है हसरत मेरी

हाथ रख कर मेरे सीने पे जिगर थाम लिया
तुम ने इस वक़्त तो गिरता हुआ घर थाम लिया

शाएर को मस्त करती है तारीफ़-ए-शेर ‘अमीर’
सौ बोतलों का नश्शा है इस वाह वाह में

है जवानी ख़ुद जवानी का सिंगार
सादगी गहना है इस सिन के लिए

वस्ल हो जाए यहीं हश्र में क्या रक्खा है
आज की बात को क्यूँ कल पे उठा रक्खा है

यह भी देखे : एहसान दानिश शायरी

Ameer Minai Poetry In Urdu

समझता हूँ सबब काफ़िर तिरे आँसू निकलने का
धुआँ लगता है आँखों में किसी के दिल के जलने का

है वसिय्यत कि कफ़न मुझ को इसी का देना
हाथ आ जाए जो उतरा हुआ पैराहन-ए-दोस्त

शाख़ों से बर्ग-ए-गुल नहीं झड़ते हैं बाग़ में
ज़ेवर उतर रहा है उरूस-ए-बहार का

हम जो पहुँचे तो लब-ए-गोर से आई ये सदा
आइए आइए हज़रत बहुत आज़ाद रहे

शब-ए-फ़ुर्क़त का जागा हूँ फ़रिश्तो अब तो सोने दो
कभी फ़ुर्सत में कर लेना हिसाब आहिस्ता आहिस्ता

वो दुश्मनी से देखते हैं देखते तो हैं
मैं शाद हूँ कि हूँ तो किसी की निगाह में

वो और वा’दा वस्ल का क़ासिद नहीं नहीं
सच सच बता ये लफ़्ज़ उन्हीं की ज़बाँ के हैं

हटाओ आइना उम्मीद-वार हम भी हैं
तुम्हारे देखने वालों में यार हम भी हैं

वाए क़िस्मत वो भी कहते हैं बुरा
हम बुरे सब से हुए जिन के लिए

वही रह जाते हैं ज़बानों पर
शेर जो इंतिख़ाब होते हैं

सारी दुनिया के हैं वो मेरे सिवा
मैं ने दुनिया छोड़ दी जिन के लिए

शब-ए-विसाल बहुत कम है आसमाँ से कहो
कि जोड़ दे कोई टुकड़ा शब-ए-जुदाई का

सारा पर्दा है दुई का जो ये पर्दा उठ जाए
गर्दन-ए-शैख़ में ज़ुन्नार बरहमन डाले

Amir Minai Ghazal

Ameer Meenai Kalam

हुए नामवर बे-निशाँ कैसे कैसे
ज़मीं खा गई आसमाँ कैसे कैसे

शैख़ कहता है बरहमन को बरहमन उस को सख़्त
काबा ओ बुत-ख़ाना में पत्थर है पत्थर का जवाब

हिलाल ओ बद्र दोनों में ‘अमीर’ उन की तजल्ली है
ये ख़ाका है जवानी का वो नक़्शा है लड़कपन का

हो गया बंद दर-ए-मै-कदा क्या क़हर हुआ
शौक़-ए-पा-बोस-ए-हसीनाँ जो तुझे था ऐ दिल

शौक़ कहता है पहुँच जाऊँ मैं अब काबे में जल्द
राह में बुत-ख़ाना पड़ता है इलाही क्या करूँ

रोज़-ओ-शब याँ एक सी है रौशनी
दिल के दाग़ों का चराग़ाँ और है

रास्ते और तवाज़ो’ में है रब्त-ए-क़ल्बी
जिस तरह लाम अलिफ़ में है अलिफ़ लाम में है

लाए कहाँ से उस रुख़-ए-रौशन की आब-ओ-ताब
बेजा नहीं जो शर्म से है आब आब शम्अ

लुत्फ़ आने लगा जफ़ाओं में
वो कहीं मेहरबाँ न हो जाए

रहा ख़्वाब में उन से शब भर विसाल
मिरे बख़्त जागे मैं सोया किया

सादा समझो न इन्हें रहने दो दीवाँ में ‘अमीर’
यही अशआर ज़बानों पे हैं रहने वाले

सब हसीं हैं ज़ाहिदों को ना-पसंद
अब कोई हूर आएगी उन के लिए

मिला कर ख़ाक में भी हाए शर्म उन की नहीं जाती
निगह नीची किए वो सामने मदफ़न के बैठे हैं

यह भी देखे : ख्वाजा मीर दर्द शायरी

Ameer Minai Books

मिली है दुख़्तर-ए-रज़ लड़-झगड़ के क़ाज़ी से
जिहाद कर के जो औरत मिले हराम नहीं

मिरा ख़त उस ने पढ़ा पढ़ के नामा-बर से कहा
यही जवाब है इस का कोई जवाब नहीं

फिर बैठे बैठे वादा-ए-वस्ल उस ने कर लिया
फिर उठ खड़ा हुआ वही रोग इंतिज़ार का

मिसी छूटी हुई सूखे हुए होंट
ये सूरत और आप आते हैं घर से

मुश्किल बहुत पड़ेगी बराबर की चोट है
आईना देखिएगा ज़रा देख-भाल के

पुतलियाँ तक भी तो फिर जाती हैं देखो दम-ए-नज़अ
वक़्त पड़ता है तो सब आँख चुरा जाते हैं

पूछा न जाएगा जो वतन से निकल गया
बे-कार है जो दाँत दहन से निकल गया

पहलू में मेरे दिल को न ऐ दर्द कर तलाश
मुद्दत हुई ग़रीब वतन से निकल गया

न वाइज़ हज्व कर एक दिन दुनिया से जाना है
अरे मुँह साक़ी-ए-कौसर को भी आख़िर दिखाना है

नावक-ए-नाज़ से मुश्किल है बचाना दिल का
दर्द उठ उठ के बताता है ठिकाना दिल का

नब्ज़-ए-बीमार जो ऐ रश्क-ए-मसीहा देखी
आज क्या आप ने जाती हुई दुनिया देखी

पहले तो मुझे कहा निकालो
फिर बोले ग़रीब है बुला लो

मानी हैं मैं ने सैकड़ों बातें तमाम उम्र
आज आप एक बात मेरी मान जाइए

मस्जिद में बुलाते हैं हमें ज़ाहिद-ए-ना-फ़हम
होता कुछ अगर होश तो मय-ख़ाने न जाते

मौक़ूफ़ जुर्म ही पे करम का ज़ुहूर था
बंदे अगर क़ुसूर न करते क़ुसूर था

Contents

Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Most Popular

you can contact us on my email id: harshittandon15@gmail.com

Copyright © 2016 कैसेकरे.भारत. Bharat Swabhiman ka Sankalp!

To Top