Akhtar Sheerani Ki Shayari : उर्दू भाषा के रोमांटिक कवियों में से एक अख्तर शीरानी जी का जन्म 4 मई 1905 को हुआ था यह एक विश्व विख्यात कवी थे जिन्होंने अपनी रचनाओं से सबसे दिल में प्यार भर दिया | इनकी मृत्यु 9 सितम्बर 1948 को पाकिस्तान के लाहौर शहर में हुई थी अपनी मृत्यु आने तक इन्होने उर्दू जगत में अपना काफी नाम कर लिया था जिसकी वजह से आज इन्हे पूरा विश्व जानता है | इसीलिए हम आपको शिरानी जी की शायरियो के बारे में बताते है जो की आपके लिए महत्वपूर्ण होती है और जिनकी मदद से आप काफी कुछ जान सकते है |
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Akhtar Shirani Books
ग़म-ए-ज़माना ने मजबूर कर दिया वर्ना
ये आरज़ू थी कि बस तेरी आरज़ू करते
कुछ इस तरह से याद आते रहे हो
कि अब भूल जाने को जी चाहता है
इक दिन की बात हो तो उसे भूल जाएँ हम
नाज़िल हों दिल पे रोज़ बलाएँ तो क्या करें
उठते नहीं हैं अब तो दुआ के लिए भी हाथ
किस दर्जा ना-उमीद हैं परवरदिगार से
इक वो कि आरज़ुओं पे जीते हैं उम्र भर
इक हम कि हैं अभी से पशीमान-ए-आरज़ू!
ख़फ़ा हैं फिर भी आ कर छेड़ जाते हैं तसव्वुर में
हमारे हाल पर कुछ मेहरबानी अब भी होती है
इन वफ़ादारी के वादों को इलाही क्या हुआ
वो वफ़ाएँ करने वाले बेवफ़ा क्यूँ हो गए
उस नज़ाकत का बुरा हो वो भले हैं तो क्या
हाथ आवें तो उन्हें हाथ लगाए न बने
ग़म-ए-आक़िबत है न फ़िक्र-ए-ज़माना
पिए जा रहे हैं जिए जा रहे हैं
उस के अहद-ए-शबाब में जीना
जीने वालो तुम्हें हुआ क्या है
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उन रस भरी आँखों में हया खेल रही है
दो ज़हर के प्यालों में क़ज़ा खेल रही है
किया है आने का वादा तो उस ने
मेरे परवरदिगार आए न आए
इन्ही ग़म की घटाओं से ख़ुशी का चाँद निकलेगा
अँधेरी रात के पर्दे में दिन की रौशनी भी है
ऐ दिल वो आशिक़ी के फ़साने किधर गए
वो उम्र क्या हुई वो ज़माने किधर गए
ग़म अज़ीज़ों का हसीनों की जुदाई देखी
देखें दिखलाए अभी गर्दिश-ए-दौराँ क्या क्या
काम आ सकीं न अपनी वफ़ाएँ तो क्या करें
उस बेवफ़ा को भूल न जाएँ तो क्या करें
उम्र भर की तल्ख़ बेदारी का सामाँ हो गईं
हाए वो रातें कि जो ख़्वाब-ए-परेशाँ हो गईं
कूचा-ए-हुस्न छुटा तो हुए रुस्वा-ए-शराब
अपनी क़िस्मत में जो लिक्खी थी वो ख़्वारी न गई
कुछ तो तन्हाई की रातों में सहारा होता
तुम न होते न सही ज़िक्र तुम्हारा होता
काँटों से दिल लगाओ जो ता-उम्र साथ दें
फूलों का क्या जो साँस की गर्मी न सह सकें
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इश्क़ को नग़्मा-ए-उम्मीद सुना दे आ कर
दिल की सोई हुई क़िस्मत को जगा दे आ कर
किसी मग़रूर के आगे हमारा सर नहीं झुकता
फ़क़ीरी में भी ‘अख़्तर’ ग़ैरत-ए-शाहाना रखते हैं
आरज़ू वस्ल की रखती है परेशाँ क्या क्या
क्या बताऊँ कि मेरे दिल में है अरमाँ क्या क्या
अब जी में है कि उन को भुला कर ही देख लें
वो बार बार याद जो आएँ तो क्या करें
अब वो बातें न वो रातें न मुलाक़ातें हैं
महफ़िलें ख़्वाब की सूरत हुईं वीराँ क्या क्या
मुझे दोनों जहाँ में एक वो मिल जाएँ गर ‘अख़्तर’
तो अपनी हसरतों को बे-नियाज़-ए-दो-जहाँ कर लूँ
पलट सी गई है ज़माने की काया
नया साल आया नया साल आया
मुझे है ए’तिबार-ए-वादा लेकिन
तुम्हें ख़ुद ए’तिबार आए न आए
रात भर उन का तसव्वुर दिल को तड़पाता रहा
एक नक़्शा सामने आता रहा जाता रहा
तमन्नाओं को ज़िंदा आरज़ूओं को जवाँ कर लूँ
ये शर्मीली नज़र कह दे तो कुछ गुस्ताख़ियाँ कर लूँ
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