शायरी (Shayari)

अहमद मुश्ताक़ की शायरी

Ahmad Mushtaq Shayari : अहमद मुश्ताक़ जी एक पाकिस्तान के उर्दू शायर थे जिन्होंने अपनी शायरियो से उर्दू जगत में अपना नाम हमेशा के लिए अमर कर लिया वह पाकिस्तान के सबसे विख्यात और प्रतिष्ठित आधुनिक शायरों में से एक है इनका जन्म 1933 में लाहौर के जिले में हुआ था | अगर आप इनकी शायरियो के बारे में जानना चाह रहे है तो इसके लिए हमने आपको अपनी पोस्ट में नीचे कुछ शायरियां बताई है जिन शायरियो की मदद से आप इनके व्यक्तित्व के बारे में भी काफी कुछ जान सकते है |

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अहमद मुश्ताक़ की ग़ज़लें

Ahmed Mushtaq Ki Gazale : अगर आप अहमद मुश्ताक़ जी की ग़जलों को जानने के लिए आप हमारे द्वारा बताई गयी जानकारी को पढ़ सकते है जिसकी मदद से आप इनकी शायरियां भी जान सकते है :

ये वो मौसम है जिस में कोई पत्ता भी नहीं हिलता
दिल-ए-तन्हा उठाता है सऊबत शाम-ए-हिज्राँ की

दिल फ़सुर्दा तो हुआ देख के उस को लेकिन
उम्र भर कौन जवाँ कौन हसीं रहता है

दुख के सफ़र पे दिल को रवाना तो कर दिया
अब सारी उम्र हाथ हिलाते रहेंगे हम

यार सब जम्अ हुए रात की ख़ामोशी में
कोई रो कर तो कोई बाल बना कर आया

रोने लगता हूँ मोहब्बत में तो कहता है कोई
क्या तिरे अश्कों से ये जंगल हरा हो जाएगा

जाने किस दम निकल आए तिरे रुख़्सार की धूप
मुद्दतों ध्यान तिरे साया-ए-दर पर रक्खा

ये पानी ख़ामुशी से बह रहा है
इसे देखें कि इस में डूब जाएँ

वो वक़्त भी आता है जब आँखों में हमारी
फिरती हैं वो शक्लें जिन्हें देखा नहीं होता

रोज़ मिलने पे भी लगता था कि जुग बीत गए
इश्क़ में वक़्त का एहसास नहीं रहता है

जिस की साँसों से महकते थे दर-ओ-बाम तिरे
ऐ मकाँ बोल कहाँ अब वो मकीं रहता है

दिल भर आया काग़ज़-ए-ख़ाली की सूरत देख कर
जिन को लिखना था वो सब बातें ज़बानी हो गईं

ये तन्हा रात ये गहरी फ़ज़ाएँ
उसे ढूँडें कि उस को भूल जाएँ

हिज्र इक वक़्फ़ा-ए-बेदार है दो नींदों में
वस्ल इक ख़्वाब है जिस की कोई ताबीर नहीं

वो जो रात मुझ को बड़े अदब से सलाम कर के चला गया
उसे क्या ख़बर मिरे दिल में भी कभी आरज़ू-ए-गुनाह थी

धुएँ से आसमाँ का रंग मैला होता जाता है
हरे जंगल बदलते जा रहे हैं कार-ख़ानों में

तू ने ही तो चाहा था कि मिलता रहूँ तुझ से
तेरी यही मर्ज़ी है तो अच्छा नहीं मिलता

जो मुक़द्दर था उसे तो रोकना बस में न था
उन का क्या करते जो बातें ना-गहानी हो गईं

भूल गई वो शक्ल भी आख़िर
कब तक याद कोई रहता है

वहाँ सलाम को आती है नंगे पाँव बहार
खिले थे फूल जहाँ तेरे मुस्कुराने से

संग उठाना तो बड़ी बात है अब शहर के लोग
आँख उठा कर भी नहीं देखते दीवाने को

मोहब्बत मर गई ‘मुश्ताक़’ लेकिन तुम न मानोगे
मैं ये अफ़्वाह भी तुम को सुना कर देख लेता हूँ

हमारा क्या है जो होता है जी उदास बहुत
तो गुल तराशते हैं तितलियाँ बनाते हैं

मैं बहुत ख़ुश था कड़ी धूप के सन्नाटे में
क्यूँ तिरी याद का बादल मिरे सर पर आया

यही दुनिया थी मगर आज भी यूँ लगता है
जैसे काटी हों तिरे हिज्र की रातें कहीं और

अहमद मुश्ताक़ की ग़ज़लें

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Urdu Shayari of Ahmed Mushtaq

उर्दू शायरी ऑफ़ अहमद मुश्ताक़ : अगर आप अहमद मुश्ताक़ की उर्दू में शायरी जानना चाहते है तो इसके लिए आप नीचे बताई गयी इन शायरियो को पढ़ सकते है और अपने दोस्तों के साथ शेयर भी कर सकते है :

तू अगर पास नहीं है कहीं मौजूद तो है
तेरे होने से बड़े काम हमारे निकले

हम उन को सोच में गुम देख कर वापस चले आए
वो अपने ध्यान में बैठे हुए अच्छे लगे हम को

मैं ने कहा कि देख ये मैं ये हवा ये रात
उस ने कहा कि मेरी पढ़ाई का वक़्त है

पानी में अक्स और किसी आसमाँ का है
ये नाव कौन सी है ये दरिया कहाँ का है

मिल ही जाएगा कभी दिल को यक़ीं रहता है
वो इसी शहर की गलियों में कहीं रहता है

होती है शाम आँख से आँसू रवाँ हुए
ये वक़्त क़ैदियों की रिहाई का वक़्त है

नींदों में फिर रहा हूँ उसे ढूँढता हुआ
शामिल जो एक ख़्वाब मिरे रत-जगे में था

तुम आए हो तुम्हें भी आज़मा कर देख लेता हूँ
तुम्हारे साथ भी कुछ दूर जा कर देख लेता हूँ

हम अपनी धूप में बैठे हैं ‘मुश्ताक़’
हमारे साथ है साया हमारा

तमाशा-गाह-ए-जहाँ में मजाल-ए-दीद किसे
यही बहुत है अगर सरसरी गुज़र जाएँ

तन्हाई में करनी तो है इक बात किसी से
लेकिन वो किसी वक़्त अकेला नहीं होता

ख़ैर बदनाम तो पहले भी बहुत थे लेकिन
तुझ से मिलना था कि पर लग गए रुस्वाई को

नए दीवानों को देखें तो ख़ुशी होती है
हम भी ऐसे ही थे जब आए थे वीराने में

खोया है कुछ ज़रूर जो उस की तलाश में
हर चीज़ को इधर से उधर कर रहे हैं हम

मुझे मालूम है अहल-ए-वफ़ा पर क्या गुज़रती है
समझ कर सोच कर तुझ से मोहब्बत कर रहा हूँ मैं

मिलने की ये कौन घड़ी थी
बाहर हिज्र की रात खड़ी थी

पता अब तक नहीं बदला हमारा
वही घर है वही क़िस्सा हमारा

बहुत उदास हो तुम और मैं भी बैठा हूँ
गए दिनों की कमर से कमर लगाए हुए

उम्र भर दुख सहते सहते आख़िर इतना तो हुआ
अपनी चुप को देख लेता हूँ सदा बनते हुए

कोई तस्वीर मुकम्मल नहीं होने पाती
धूप देते हैं तो साया नहीं रहने देते

बहता आँसू एक झलक में कितने रूप दिखाएगा
आँख से हो कर गाल भिगो कर मिट्टी में मिल जाएगा

बला की चमक उस के चेहरे पे थी
मुझे क्या ख़बर थी कि मर जाएगा

कैसे आ सकती है ऐसी दिल-नशीं दुनिया को मौत
कौन कहता है कि ये सब कुछ फ़ना हो जाएगा

किसी जानिब नहीं खुलते दरीचे
कहीं जाता नहीं रस्ता हमारा

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