Zafar Iqbal Ki Shayari : ज़फर इक़बाल का जन्म 27 सितम्बर 1933 में पाकिस्तान के ओकरा शहर में हुआ था वह एक वकील के पद पर कार्यरत रहे इसके अलावा वह एक नेवसपपेर के संपादक भी रहे | जिसकी वजह से इनके अंदर पोएट बनने की भी इच्छा जाग्रत रहती है इसी कारणवश यह कई कविताये, ग़ज़लें, शेरो व शायरी लिखने लगे जिसके बाद इनकी रचनाए प्रकाशित होने लगी और वह हिंदी, उर्दू व फ़ारसी के अलावा अन्य भाषाओ में भी अपनी रचनाये करने लगे | इसीलिए हम आपको जफ़र इक़बाल जी द्वारा लिखी गयी कुछ बेहतरीन शायरियो के बारे में बताते है जिन शायरियो की मदद से आप इनके बारे में बहुत कुछ जान सकते है |
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पाकिस्तानी शायर ज़फर इक़बाल की ग़ज़लें
हर बार मदद के लिए औरों को पुकारा
या काम लिया नारा-ए-तकबीर से हम ने
हम इतनी रौशनी में देख भी सकते नहीं उस को
सो अपने आप ही इस चाँद को गहनाए रखते हैं
वो सूरत देख ली हम ने तो फिर कुछ भी न देखा
अभी वर्ना पड़ी थी एक दुनिया देखने को
हर नया ज़ाइक़ा छोड़ा है जो औरों के लिए
पहले अपने लिए ईजाद भी ख़ुद मैं ने किया
हमारा इश्क़ रवाँ है रुकावटों में ‘ज़फ़र’
ये ख़्वाब है किसी दीवार से नहीं रुकता
हवा के साथ जो इक बोसा भेजता हूँ कभी
तो शोला उस बदन-पाक से निकलता है
शब-ए-विसाल तिरे दिल के साथ लग कर भी
मिरी लुटी हुई दुनिया तुझे पुकारती है
हम पे दुनिया हुई सवार ‘ज़फ़र’
और हम हैं सवार दुनिया पर
सुना है वो मिरे बारे में सोचता है बहुत
ख़बर तो है ही मगर मो’तबर ज़्यादा नहीं
वो क़हर था कि रात का पत्थर पिघल पड़ा
क्या आतिशीं गुलाब खिला आसमान पर
साल-हा-साल से ख़ामोश थे गहरे पानी
अब नज़र आए हैं आवाज़ के आसार मुझे
वो बहुत चालाक है लेकिन अगर हिम्मत करें
पहला पहला झूट है उस को यक़ीं आ जाएगा
वो चेहरा हाथ में ले कर किताब की सूरत
हर एक लफ़्ज़ हर इक नक़्श की अदा देखूँ
हाथ पैर आप ही मैं मार रहा हूँ फ़िलहाल
डूबते को अभी तिनके का सहारा कम है
हवा शाख़ों में रुकने और उलझने को है इस लम्हे
गुज़रते बादलों में चाँद हाइल होने वाला है
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Zafar Iqbal 2 Lines Shayari
वो मुझ से अपना पता पूछने को आ निकले
कि जिन से मैं ने ख़ुद अपना सुराग़ पाया था
वो मक़ामात-ए-मुक़द्दस वो तिरे गुम्बद ओ क़ौस
और मिरा ऐसे निशानात का ज़ाएर होना
सफ़र पीछे की जानिब है क़दम आगे है मेरा
मैं बूढ़ा होता जाता हूँ जवाँ होने की ख़ातिर
सुनोगे लफ़्ज़ में भी फड़फड़ाहट
लहू में भी पर-अफ़्शानी रहेगी
यूँ भी होता है कि यक दम कोई अच्छा लग जाए
बात कुछ भी न हो और दिल में तमाशा लग जाए
वक़्त ज़ाए न करो हम नहीं ऐसे वैसे
ये इशारा तो मुझे उस ने कई बार दिया
सच है कि हम से बात भी करना नमाज़ है
गर हो सके तो इस को क़ज़ा मत किया करो
साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़ थी पानी की तरह निय्यत-ए-दिल
देखने वालों ने देखा इसे गदला कर के
यहीं तक लाई है ये ज़िंदगी भर की मसाफ़त
लब-ए-दरिया हूँ मैं और वो पस-ए-दरिया खिला है
हुस्न उस का उसी मक़ाम पे है
ये मुसाफ़िर सफ़र नहीं करता
ये ज़िंदगी की आख़िरी शब ही न हो कहीं
जो सो गए हैं उन को जगा लेना चाहिए
विदाअ’ करती है रोज़ाना ज़िंदगी मुझ को
मैं रोज़ मौत के मंजधार से निकलता हूँ
ये शहर ज़िंदा है लेकिन हर एक लफ़्ज़ की लाश
जहाँ कहीं से उठी शोर मेरे घर में रहा
ये साफ़ लगता है जैसी कि उस की आँखें थीं
वो अस्ल में मुझे बीमार करने आया था
ये हम जो पेट से ही सोचते हैं शाम ओ सहर
कभी तो जाएँगे इस दाल-भात से आगे
Zafar Iqbal Ghazal In Hindi
ये क्या फ़ुसूँ है कि सुब्ह-ए-गुरेज़ का पहलू
शब-ए-विसाल तिरी बात बात से निकला
ये हाल है तो बदन को बचाइए कब तक
सदा में धूप बहुत है लहू में लू है बहुत
यहाँ किसी को भी कुछ हस्ब-ए-आरज़ू न मिला
किसी को हम न मिले और हम को तू न मिला
ये भी मुमकिन है कि इस कार-गह-ए-दिल में ‘ज़फ़र’
काम कोई करे और नाम किसी का लग जाए
वहाँ मक़ाम तो रोने का था मगर ऐ दोस्त
तिरे फ़िराक़ में हम को हँसी बहुत आई
रूह फूँकेगा मोहब्बत की मिरे पैकर में वो
फिर वो अपने सामने बे-जान कर देगा मुझे
रू-ब-रू कर के कभी अपने महकते सुर्ख़ होंट
एक दो पल के लिए गुल-दान कर देगा मुझे
रोक रखना था अभी और ये आवाज़ का रस
बेच लेना था ये सौदा ज़रा महँगा कर के
रौ में आए तो वो ख़ुद गर्मी-ए-बाज़ार हुए
हम जिन्हें हाथ लगा कर भी गुनहगार हुए
रखता हूँ अपना आप बहुत खींच-तान कर
छोटा हूँ और ख़ुद को बड़ा करने आया हूँ
लम्बी तान के सो जा और
सिसकी को ख़र्राटा कर
मौत के साथ हुई है मिरी शादी सो ‘ज़फ़र’
उम्र के आख़िरी लम्हात में दूल्हा हुआ मैं
रहता नहीं हूँ बोझ किसी पर ज़ियादा देर
कुछ क़र्ज़ था अगर तो अदा भी हुआ हूँ मैं
लगता है इतना वक़्त मिरे डूबने में क्यूँ
अंदाज़ा मुझ को ख़्वाब की गहराई से हुआ
फिर सर-ए-सुब्ह किसी दर्द के दर वा करने
धान के खेत से इक मौज-ए-हवा आई है
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Zafar Iqbal Urdu Sher In Hindi
मुझ में हैं गहरी उदासी के जरासीम इस क़दर
मैं तुझे भी इस मरज़ में मुब्तला कर जाऊँगा
लगाता फिर रहा हूँ आशिक़ों पर कुफ़्र के फ़तवे
‘ज़फ़र’ वाइज़ हूँ मैं और ख़िदमत-ए-इस्लाम करता हूँ
मैं डूबता जज़ीरा था मौजों की मार पर
चारों तरफ़ हवा का समुंदर सियाह था
मुस्कुराते हुए मिलता हूँ किसी से जो ‘ज़फ़र’
साफ़ पहचान लिया जाता हूँ रोया हुआ मैं
मैं किसी और ज़माने के लिए हूँ शायद
इस ज़माने में है मुश्किल मिरा ज़ाहिर होना
मुश्किल-पसंद ही सही मैं वस्ल में मगर
अब के ये मरहला मुझे आसाँ भी चाहिए
लगी थी जान की बाज़ी बिसात उलट डाली
ये खेल भी हमें यारों ने हारने न दिया
मैं ज़ियादा हूँ बहुत उस के लिए अब तक भी
और मेरे लिए वो सारे का सारा कम है
मुझे कुछ भी नहीं मालूम और अंदर ही अंदर
लहू में एक दस्त-ए-राएगाँ फैला हुआ है
मुझे ख़राब किया उस ने हाँ किया होगा
उसी से पूछिए मुझ को ख़बर ज़ियादा नहीं
मिरी फ़ज़ा में है तरतीब-ए-काएनात कुछ और
अजब नहीं जो तिरा चाँद है सितारा मुझे
मिरा मेयार मेरी भी समझ में कुछ नहीं आता
नए लम्हों में तस्वीरें पुरानी माँग लेता हूँ
मेरी सूरज से मुलाक़ात भी हो सकती है
सूखने डाल दिया जाऊँ जो धोया हुआ मैं
मुझ से छुड़वाए मिरे सारे उसूल उस ने ‘ज़फ़र’
कितना चालाक था मारा मुझे तन्हा कर के
मिला तो मंज़िल-ए-जाँ में उतारने न दिया
वो खो गया तो किसी ने पुकारने न दिया
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